'सुबह' (अगस्त १९९४) की समीक्षा: भाषाई राजनीति और संपादकीय दूरदर्शिता का एक आलोचनात्मक विश्लेषण
1.0 प्रस्तावना: 'सुबह' पत्रिका का ऐतिहासिक और साहित्यिक संदर्भ
'सुबह' नामक हस्तलिखित पत्रिका का अगस्त १९९४ का अंक केवल एक साहित्यिक संग्रह नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक दस्तावेज़ है। इसके संपादक, अनिलचन्द्र ठाकुर, द्वारा "पारिवारिक सृजन का मासिक" के रूप में प्रस्तुत यह अंक अपने समय की साहित्यिक चेतना और सामाजिक बहसों का एक दुर्लभ और अंतरंग स्नैपशॉट प्रदान करता है। इस दस्तावेज़ का मुख्य उद्देश्य शास्त्री रामचन्द्रन के अनुवादित लेख "लोगों की भाषा" का आलोचनात्मक विश्लेषण करना है, जो १९९४ के भाषा विवादों को समझने का एक शक्तिशाली माध्यम प्रदान करता है। इस लेख के माध्यम से हम उस समय के भाषाई-राजनीतिक तनावों की तुलना उनकी समकालीन प्रतिध्वनियों से करेंगे और साथ ही, पत्रिका की व्यापक संपादकीय दृष्टि का मूल्यांकन भी करेंगे, एक ऐसी दृष्टि जिसने इस महत्वपूर्ण विमर्श को अपने पन्नों में स्थान देकर स्थानीय संघर्षों को राष्ट्रीय संवाद से जोड़ा। यह विश्लेषण इस तथ्य को उजागर करता है कि कैसे एक छोटे स्तर का प्रकाशन भी राष्ट्रीय महत्व के संवादों को संरक्षित और प्रसारित कर सकता है।
2.0 अनिलचन्द्र ठाकुर की संपादकीय दृष्टि: स्थानीय संघर्ष और वैश्विक संवाद
किसी भी पत्रिका के विशिष्ट लेख का विश्लेषण करने से पहले उसके संपादक की दृष्टि को समझना रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि संपादकीय स्तंभ ही पूरे अंक की वैचारिक नींव रखता है। अनिलचन्द्र ठाकुर का संपादकीय "मेरी बात : आपकी बात" केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक लेखक और संपादक के रूप में उनके गहरे सरोकारों का एक ईमानदार घोषणापत्र है, जो उनके व्यक्तिगत आर्थिक संघर्षों ("कार्यालय से अवकाश ले लिया है सो आर्थिक कठिनाई बढ़ गई है") से शुरू होकर लेखकों के राष्ट्रव्यापी संकट तक पहुँचता है, जिसमें "सम्मान और पुरस्कार वितरण में भी राजनीति, दो-मुँही बातें होती हैं" की कड़वी सच्चाई शामिल है।
संपादकीय में, ठाकुर भारत में लेखकों के वित्तीय और सामाजिक संघर्षों को केंद्र में रखते हैं। वे तर्क देते हैं कि लेखन एक "तपस्या" है जिसमें सबसे बड़ा "व्यवधान पैसा डालता है।" वे सरकार से लेखकों को आर्थिक निश्चितता प्रदान करने की पुरजोर माँग करते हैं, यह कहते हुए कि यह सरकार का "परम दायित्व" है। साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर, वे इसे राष्ट्र की मूल पहचान के रूप में परिभाषित करते हैं: "देश की पहचान का मूल, साहित्य है, साहित्य !!" यह स्तंभ लेखकों की गरिमा और उनके योगदान को मान्यता देने की एक भावुक अपील है, जो उस समय के साहित्यिक परिवेश की कठोर वास्तविकताओं को उजागर करता है।
यह संपादकीय दृष्टि पत्रिका की विविध सामग्री में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है। एक ओर रस्किन बॉण्ड का आत्मकथात्मक संस्मरण "मसूरी : कुछ यादें" और विनोदनानंद ठाकुर की यथार्थवादी कहानी "विजेता" जैसे लेख हैं, जो भारतीय संदर्भों में गहराई से निहित हैं। दूसरी ओर, विश्वप्रसिद्ध रोमांस लेखिका बारबरा कार्टलैंड पर एक परिचय शामिल करना, वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य के साथ जुड़ने की उनकी आकांक्षा को दर्शाता है। यह संपादकीय संयोजन, विशेषकर १९९१ के उदारीकरण के बाद के भारत के संदर्भ में, एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्य था। यह एक ऐसे नए भारत की आकांक्षाओं को मूर्त रूप देता है जो वैश्विक संवाद में अपनी जगह बना रहा था, लेकिन अपनी स्थानीय पहचान की जड़ों को खोना नहीं चाहता था। यह "स्थानीय हृदय, वैश्विक मन" ("Local heart, global mind") की दृष्टि का प्रमाण है, जो एक हस्तलिखित पत्रिका को भी एक व्यापक बौद्धिक मंच प्रदान करती है।
इसी साहसिक और समावेशी दृष्टि ने संपादक को एक ऐसे लेख का अनुवाद और प्रकाशन करने के लिए प्रेरित किया जो सीधे तौर पर भारत के सबसे संवेदनशील राजनीतिक मुद्दों में से एक को संबोधित करता है।
3.0 "लोगों की भाषा" का विखंडन: १९९४ के भाषाई-राजनीतिक विमर्श का विश्लेषण
शास्त्री रामचन्द्रन का अनुवादित लेख "लोगों की भाषा" केवल एक सामयिक टिप्पणी नहीं, बल्कि १९९४ के भारत में भाषा, शक्ति और पहचान के बीच के जटिल और अक्सर विस्फोटक अंतर्संबंध का एक तीक्ष्ण विच्छेदन है। लेख का मूल शोध-ग्रंथ भाषा को एक तटस्थ माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति के एक प्रत्यक्ष प्रॉक्सी के रूप में पहचानता है, और यह उस दौर के सामाजिक-राजनीतिक तनावों को उजागर करता है, जिनका प्रभाव आज भी महसूस किया जा सकता है।
राजनीतिक शक्ति और भाषा का गठजोड़
लेख का मूल आधार इस शक्तिशाली उद्धरण में निहित है: "ताकत की राजनीति 'ताकत की भाषा' को स्थिर करती है।" रामचन्द्रन तर्क देते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव द्वारा "लोगों की भाषा" का आह्वान भाषाई एकता का एक भोला प्रयास नहीं था, बल्कि हिंदी के प्रभुत्व को राजनीतिक रूप से मजबूत करने का एक सोचा-समझा कदम था। लेख के अनुसार, राजनीतिक शक्ति का केंद्र हिंदी के "हृदय स्थल" में होने के कारण, हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर एक प्रभावी शक्ति के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था। यह विश्लेषण भाषा को एक तटस्थ संचार माध्यम के बजाय राजनीतिक प्रभुत्व के एक उपकरण के रूप में प्रस्तुत करता है।
अधिरोपण बनाम स्वीकृति का द्वंद्व
लेख का एक केंद्रीय तर्क यह है कि गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रतिरोध स्वयं हिंदी भाषा के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसके अधिरोपण (लादे जाने) के खिलाफ था। यह इस बिंदु को पुष्ट करने के लिए विरोधाभासी साक्ष्य प्रस्तुत करता है। एक ओर, मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं द्वारा 'अंग्रेजी हटाओ' अभियान और ई. के. नयनार द्वारा हिंदी में लिखे पत्र को "देहातीपन" कहकर लौटा देना राजनीतिक प्रतिरोध को दर्शाता है। किंतु, लेख एक विडंबनापूर्ण दृष्टांत भी प्रस्तुत करता है: जब नयनार (जिन्हें हिंदी नहीं आती थी) की राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी) से मुलाकात हुई, तो दोनों ने बिना किसी समस्या के संवाद किया। यह घटना इस धारणा को कमजोर करती है कि राष्ट्रीय संवाद के लिए हिंदी अनिवार्य है। वहीं दूसरी ओर, लेख यह भी रेखांकित करता है कि तमिलनाडु जैसे राज्य में, "कठोर राजनीतिक विरोध के बावजूद," स्वेच्छा से हिंदी सीखने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में परीक्षार्थियों की संख्या १९८५ में ३५,००० से बढ़कर १९९३ में १.१३ लाख हो गई, जो यह दर्शाता है कि व्यावहारिक और व्यावसायिक आवश्यकताएँ राजनीतिक विचारधारा पर भारी पड़ रही थीं।
हिन्दी-उर्दू विभाजन और साम्प्रदायिक राजनीति
रामचन्द्रन इसके बाद विभाजन के बाद के भाषाई विच्छेद का सूक्ष्मता से विच्छेदन करते हैं, यह रेखांकित करते हुए कि कैसे स्वाभाविक, समन्वयवादी 'हिन्दुस्तानी' (खड़ी बोली) को राजनीतिक रूप से एक 'शुद्ध' हिंदी और एक हाशिए पर पड़ी 'उर्दू' में बदल दिया गया, जिसे "विदेशी, दुश्मन (पाकिस्तानी)" तक कहा गया। यह भाषाई विभाजन सांप्रदायिक पहचान की राजनीति से गहराई से जुड़ा हुआ था। लेख में प्रस्तुत आँकड़े इस हाशिए पर जाने की कहानी को प्रमाणित करते हैं: १९९३ में उत्तर प्रदेश के उर्दू माध्यम स्कूलों में असफलता दर ७४% थी, जबकि राज्य में एक भी उर्दू माध्यम का प्राथमिक या कनीय उच्च विद्यालय नहीं था। यह विश्लेषण स्पष्ट करता है कि कैसे भाषा का मुद्दा केवल संचार तक सीमित न रहकर, सामुदायिक पहचान और राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक प्रमुख क्षेत्र बन गया था।
इस प्रकार, यह लेख १९९४ के उन प्रमुख संघर्षों को उजागर करता है—राजनीतिक वर्चस्व, सांस्कृतिक पहचान और सांप्रदायिक तनाव—जो भाषा की बहस के केंद्र में थे और जिनकी गूँज आज भी भारतीय विमर्श में सुनाई देती है।
4.0 भाषाई विमर्श: १९९४ से २०२५ तक की प्रतिध्वनि
शास्त्री रामचन्द्रन का १९९४ का लेख अपने विश्लेषण में उल्लेखनीय रूप से दूरदर्शी था। यह खंड भविष्य का कोई नया डेटा प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि यह विश्लेषण करता है कि १९९४ में पहचाने गए मौलिक संघर्ष और तनाव भारत के समकालीन सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में लगातार कैसे गूंजते रहते हैं। लेख में उजागर की गई दरारें समय के साथ भरी नहीं हैं, बल्कि कई मायनों में और गहरी हुई हैं, जो इसे आज भी प्रासंगिक बनाती हैं।
१९९४ का विमर्श (लेख पर आधारित) | समकालीन प्रतिध्वनि (विश्लेषण) |
राजनीतिक प्रभुत्व के लिए एक उपकरण के रूप में हिंदी | यह तनाव आज भी राष्ट्रीय भाषा की बहस के केंद्र में है। हिंदी को राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में बढ़ावा देने के प्रयास अक्सर गैर-हिंदी भाषी राज्यों द्वारा सांस्कृतिक अधिरोपण के रूप में देखे जाते हैं, जो १९९४ के प्रतिरोध की प्रतिध्वनि है। |
अभिजात्य आकांक्षा और पाखंड की भाषा के रूप में अंग्रेजी | लेख में राजनेताओं द्वारा हिंदी की वकालत करते हुए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजने का उल्लेख किया गया है। यह पाखंड आज भी प्रासंगिक है, जहाँ अंग्रेजी वैश्विक गतिशीलता और सामाजिक प्रतिष्ठा की भाषा बनी हुई है, जिससे भाषाई आधार पर एक गहरी सामाजिक खाई पैदा होती है। |
उर्दू जैसी क्षेत्रीय और अल्पसंख्यक भाषाओं का हाशिए पर जाना | लेख में उर्दू को "पाकिस्तानी" कहकर सांप्रदायिक रंग देने और उसे व्यवस्थित रूप से कमजोर करने का जो वर्णन है, वह आज भी प्रासंगिक है। अल्पसंख्यक भाषाओं के संरक्षण और उनकी स्थिति का सवाल आज भी सांस्कृतिक और राजनीतिक बहसों का एक संवेदनशील विषय बना हुआ है। |
अधिरोपण के विरुद्ध स्वैच्छिक स्वीकृति | १९९४ में तमिलनाडु में स्वेच्छा से हिंदी सीखने वालों की बढ़ती संख्या यह दर्शाती है कि आर्थिक अवसर राजनीतिक विचारधारा पर हावी हो सकते हैं। यह प्रवृत्ति आज और भी मजबूत हुई है, जहाँ बॉलीवुड, ओटीटी प्लेटफॉर्म और नौकरी के बाजार ने हिंदी की स्वैच्छिक पहुंच को बढ़ाया है, भले ही राजनीतिक स्तर पर इसका विरोध जारी हो। |
इन स्थायी बहसों का विश्लेषण हमें 'सुबह' जैसी पत्रिकाओं के महत्व की ओर वापस ले जाता है, जो केवल साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन नहीं करतीं, बल्कि अपने समय की जटिल सामाजिक सच्चाइयों का दस्तावेजीकरण भी करती हैं।
5.0 निष्कर्ष: 'सुबह' - एक सांस्कृतिक दस्तावेज़
अंततः, 'सुबह' का अगस्त १९९४ का अंक केवल साहित्यिक कृतियों का एक संग्रह मात्र नहीं है; यह एक सांस्कृतिक टाइम कैप्सूल है जो १९९० के दशक के भारत की बौद्धिक और सामाजिक नब्ज को पकड़ता है। यह विश्लेषण दो प्रमुख निष्कर्षों को उजागर करता है: पहला, संपादक अनिलचन्द्र ठाकुर की दूरदर्शी दृष्टि, जिन्होंने न केवल लेखकों की गरिमा और उनके आर्थिक संघर्षों का समर्थन किया, बल्कि स्थानीय और वैश्विक साहित्य के बीच एक सार्थक संवाद को भी बढ़ावा दिया। दूसरा, उस समय की विभाजनकारी भाषा बहस पर एक साहसिक और आलोचनात्मक लेख का अनुवाद और प्रकाशन करने में पत्रिका का साहस, जिसने इसे केवल एक साहित्यिक प्रयास से कहीं अधिक बना दिया।
रस्किन बॉण्ड के शांत आत्मनिरीक्षण से लेकर विनोदनानंद ठाकुर के सामाजिक यथार्थवाद और शास्त्री रामचन्द्रन के तीखे राजनीतिक विश्लेषण तक, यह अंक विचारों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रस्तुत करता है। अपने विचारशील संपादन और अनुवाद के माध्यम से, 'सुबह' ने भारत के सामाजिक-भाषाई इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण को पकड़ने और संरक्षित करने में एक अमूल्य भूमिका निभाई। यह इस बात का एक शक्तिशाली प्रमाण है कि कैसे एक हस्तलिखित "पारिवारिक सृजन" भी गहरा राष्ट्रीय महत्व रख सकता है, जो अपने समय की जटिलताओं को भविष्य की पीढ़ियों के लिए दर्ज करता है।
No comments:
Post a Comment