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✍️ तुम्हारी जीवंत छवि के उजास में — अनिलचंद्र ठाकुर को समर्पित एक काव्यांजलि लेखक: देवेंद्र कुमार 'देवेश'

 

"एक लेखक के जाने से शब्द मरते नहीं, वे स्मृति की किताबों में साँस लेते हैं।"

2 सितंबर 2007, नई दिल्ली — साहित्य अकादमी सभागार में जब ‘आब मान जाउ’ के लोकार्पण की तैयारी थी, अनिलचंद्र ठाकुर की आँखों में कई नई किताबों की चमक थी। पर नियति ने उस दिन एक और कथा लिख दी — उनकी अंतिम साँसों की।

यह कविता “तुम्हारी जीवंत छवि के उजास में”, वरिष्ठ कवि देवेंद्र कुमार देवेश द्वारा लिखी गई, न केवल एक साहित्यिक श्रद्धांजलि है, बल्कि मित्रता, आशा, और अपूर्णता की गहरी पीड़ा भी समेटे हुए है। आइए पढ़ते हैं यह संपूर्ण कविता, उन्हीं की स्मृति में:


🕊️ कविता: तुम्हारी जीवंत छवि के उजास में

(कवि–कथाकार अनिलचंद्र ठाकुर के निधन पर)
-- देवेंद्र कुमार देवेश

विचलित है मन
नींद है कोसों दूर
पूछती है बार‑बार पत्नी
पर क्या कहूँ उससे?
हृदय पर एक बोझ‑सा है,
पर दोष किसे दूँ —
परिस्थितियों को,
स्वर को,
तुम्हारी असाध्य बीमारी को
या नियति को?

अपनी हिन्दी कहानियों के संग्रह
‘अनत कहाँ सुख पावै’
के लिए प्रतीक्षित थीं तुम्हारी आँखें
पुलकित होता मैं भी
इसकी प्रति स्वयं तुम्हारे हाथों में रखकर —
उत्सव मानने मिलकर सब
तुम्हारी इस नवीन कृति के जन्म का भी
देते तो भला
कुछ और दिनों का अवकाश!

बड़े भाई अनिल,
कितने प्रफुल्लित थे तुम
अपने मैथिली उपन्यास ‘आब मान जाउ’
की मुद्रित प्रति अपने हाथों में पाकर,
कई गुना हो गई थीं तुम्हारी खुशियाँ, जब
तुमने जाना कि इसका लोकार्पण
वरिष्ठ मैथिली कथाकार गंगेश गुंजन द्वारा
2 सितंबर 2007 को नई दिल्ली स्थित
साहित्य अकादमी सभागार में किया गया।
साथ ही
मैलोंरंग चौमासा के परिचय अंक में

केदार कानन द्वारा लिखी गई पुस्तक–समिक्षा पढ़कर
और पाकर अनेकानेक त्वरित प्रतिक्रियाएँ
तुम्हारा भरोसा और भी गहरा गया था
और तुम्हारे साथ-साथ पूनम भाभी की आँखों में भी
फूट पड़ी थी आशा की कई-कई अभिनव किरणें!

माना कि तुमने पुस्तक के
बहुरंगी आवरण का प्रिन्ट देख लिया था
और पूरी तरह आश्वस्त थे मेरे प्रति,
पर मित्र,
इतनी भी क्या जल्दी थी
कि आज 2 नवंबर 2007 की संध्या बेला में
पुस्तक की पहली प्रति तैयार होते ही
उखड़ने लगी तुम्हारी साँसे
और छोड़ गए तुम इस नश्वर शरीर को!

पता होता मुझे कि
इतना गहरा नाता है तुम्हारा इस पुस्तक से
कि बंधी हैं इसकी पूर्णता में ही
तुम्हारे प्राणों की डोर
तो फिर क्यों
तैयार होने देता भला मैं इसको?
नहीं छँपती तुम्हारी कहानी, तुम्हारी किताब
हम होते भले ही 1325 किलोमीटर की दूरी पर,
पर भैया,
तुम तो होते—
और होती तुम्हारी
मौत से लड़ती दिलेर साँसे
और तुम्हारी जीवंत छवि के उजास में
मिल—बैठकर गपियाने की हमारी उम्मीद।



📖 अनिलचंद्र ठाकुर की याद में...

  • जन्म: 13 सितम्बर 1954

  • निधन: 2 नवंबर 2007

  • कृतियाँ:

    • The Puppets (English Novel)

    • अनत कहाँ सुख पावै (हिंदी कहानी संग्रह)

    • Ek Ghar Sadak Par (हिंदी  उपन्यास)

    • Aab Maan Jau (मैथिली उपन्यास नाटक, NSD में मंचित)

उनकी लेखनी ने ग्रामीण भारत, जातिगत विषमता, सामाजिक विमर्श, और मानवीय करुणा को शब्दों में जीवंत कर दिया। वे हिंदी, मैथिली, अंगिका और अंग्रेजी साहित्य के बहुभाषिक ध्वजवाहक थे।


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